वर्तमान न्याय प्रणाली और उसका भविष्य ?

ब्रिटिश भारत और उससे पहले मुगल शासकों द्वारा किये जा रहे अन्याय और अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिये हम भारतीयों ने बहुत अधिक संघर्ष किये और बहुत से क्रांतिकारियों ने अपने जीवन का सर्वस्व देश को अन्याय और अत्याचार से मुक्त कराने के लिये अर्पित कर दिया।
परंतु क्या आज यह महसूस हो रहा है कि हमारे महान पूर्वजों ने जो लडाइयां हमें एक अन्याय और अत्याचार मुक्त राष्ट्र प्रदान करने के लिये लडीं वह सफल हो सकीं है। क्या आज हम यह कह सकते हैं कि 15 अगस्त 1947 को आजाद भारत का बहु प्रतिक्षित स्वपन साकार करने के बाद भी हम अन्याय और अत्याचार मुक्त राष्ट्र का स्वपन साकार कर सके हैं। शायद नहीं।
हो सकता है बहुत से लोग मेरे विचारों से सहमत न हों परंतु यह कडवी सच्चाई है की हम अन्याय और अत्याचार मुक्त राष्ट्र बनाने में पूरी तरह सफल नहीं हुये है।
और हो भी कैसे सकते हैं। हमारी तो यादाश्त ही इतनी कमजोर हो चुकी है कि हम भूल जाते हैं कि एक या दो माह पहले को घटना घटी भी थी। यदि याद भी हो तो हम यह जानने का प्रयास नहीं करते की उसमें क्या हुआ। फिर एक नई घटना घटित होती है। हम बरसाती मेंढक की तरह चार दिन चिल्लाकर गहन निद्रा में तब तक के लिये सो जाते हैं जब तक कोई उससे भी जघन्य घटना घटित न हो जाये।
यह तो जनसामान्य की बात हुई जिसे अपने जीवन निर्वाह से समय नहीं मिलता की वह इन सबके लिये कुछ कर या सोच सके। परंतु जिनका दायित्व है इन घटनाओं को रोकने और उसके पश्चात दोषियों को उनके अंजाम तक पहुंचाने का वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन कितनी अच्छी तरह से कर रहे हैं। इसके संबंध में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।
लेकिन उन न्यायाधीशों और पुलिस प्रशासन का क्या जिनका दायित्व है। समाज को रहने लायक जगह बनाने का, सबके सब सत्ता की चरण वंदना करने में लगे रहते हैं। चाहे वह न्यायालय हो अथवा पुलिस प्रशासन। राजनैतिक वाद हो तो रविवार को न्यायालय खुलवाकर मंगलवार को न्याय प्रदान कर दिया जाता है। और वाद यदि साधारण व्यक्ति के जीवन अथवा जीविका से भी संबंधित हो तो शायद ही व्यक्ति के जीवनकाल में उसे न्याय प्राप्त हो सके। न्याय के नाम पर मिलती है तो बस तारीख पर तारीख, और कभी कभी तो वह भी नहीं। जन सामान्य के न्याय की आशा न्यायालयों की फाइलों मे धूल खाकर दम तोड देती है।
मंत्री जी की भैस चोरी हो या प्रधानमंत्री की भतीजी का पर्स यह कार्य प्रथम वरीयता पर किये जाते हैं। सप्ताह भर में मंत्री जी की भैंस और चौबीस घंटों में प्रधानमंत्री की भतीजी का पर्स तलाश करने वाला पुलिस प्रशासन जन समान्य से सीधे मुह बात करना पसंद नहीं करता। कार्य करना तो बहुत दूर की बात है।
यह परिस्थितियां को नयी नहीं हैं और न ही किसी सरकार विशेष से इनका संबंध है। स्वतंत्रता से आज तक यही स्थिति बनी हुई है और हम इस स्थिति के इतने आदी हो गये है कि हमे यह अहसास ही नहीं होता की सभ्य और सुरक्षित समाज व शीघ्र न्याय भी हमारा अधिकार है जिसे प्राप्त करने के लिये दशकों की लडाई हमारे पूर्वजों ने लडी है।
 अत्याचार और अन्याय के विरुद्द संघर्ष जिसे स्वतंत्रता के साथ समाप्त  हो जाना चाहिये था, उसे फिर से प्रारंभ कर एक निर्णायक अंत देना होगा। जिससे ऐसा बदलाव आये की हमारी आने वाली पीढियां अत्याचार और अन्याय मुक्त भारत में सांस ले सकें।

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